Opinion

Lady Justice Statue: ‘न्याय की देवी’ की सूरत बदली पर न्याय प्रणाली की सीरत भी बदलेगी?

लेखक : अजय बोकिल, वरिष्ठ पत्रकार

देश के सर्वोच्च न्यायालय में यह प्रतीकात्मक बदलाव इस मायने में अच्छा है कि हम न्याय प्रणाली का भी स्वदेशीकरण करना चाह रहे हैं, भले ही हमे यह औपनिवेशिक व्यवस्था अंग्रेजों से विरासत में मिली हो। इस लिहाज सुप्रीम कोर्ट परिसर में भी यूरोपीय शैली में ‘न्याय की देवी’ की वही प्रतिमा स्थापित की गई थी, जिसकी मूल अवधारणा रोमन सभ्यता की रही है।
आजादी के 75 वें साल में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘न्याय की देवी’ की आंखों से पट्टी हटाने का फैसला न्याय के प्रति नैतिक दृष्टिकोण में सकारात्मक बदलाव का प्रतीक भले हो, लेकिन इससे देश में बेहद धीमी गति से काम कर रही न्याय व्यवस्था में सुधार और लोगों को त्वरित और स्वीकार्य कैसे मिलेगा, इसका कोई जवाब नहीं मिलता। ‘न्याय की देवी’ के स्वरूप और तेवर का भारतीयकरण हो, यह अच्छा है, लेकिन न्याय प्रणाली अपने काम काज में भी ‘देसी ढर्रे’ पर ही चले, यह गंभीर चिंता का विषय है।

देश के सर्वोच्च न्यायालय में यह प्रतीकात्मक बदलाव इस मायने में अच्छा है कि हम न्याय प्रणाली का भी स्वदेशीकरण करना चाह रहे हैं, भले ही हमे यह औपनिवेशिक व्यवस्था अंग्रेजों से विरासत में मिली हो। इस लिहाज सुप्रीम कोर्ट परिसर में भी यूरोपीय शैली में ‘न्याय की देवी’ की वही प्रतिमा स्थापित की गई थी, जिसकी मूल अवधारणा रोमन सभ्यता की रही है। अर्थात एक रौबदार देवी के दाएं हाथ में न्याय की तराजू और बाएं हाथ में तलवार। देवी की आंखों पर पट्टी का अर्थ यह कि वह बिना पक्षपात के न्याय देगी।  तराजू के मायने यह कि सभी पक्षों को समान रूप से सुना जाएगा और तलवार न्याय के पारदर्शी होने और कानून के पालन की गारंटी है। रोमन अवधारणा में यह देवी ‘जस्टिशिया’ है। हालांकि, इस न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी के कई अर्थ हैं, जिसमें से एक निष्पक्ष न्याय की जगह कानून के अंधा होने से भी है। कानून के मानवीय और और सामाजिक सरोकारों से परे होने से है।
यही कारण है कि ग्रीक और रोमन संस्कृति के वारिस आज यूरोप के कुछ देशों में ‘न्याय की देवी’ की आंखों पर से पट्टी हटा दी गई है। मसलन कनाडा में तो न्याय की देवी सिर से पैर तक केवल एक लबादा ओढ़े दिखती है। उसकी आंखे खुली हैं, लेकिन हाथों में न तो तराजू है और न ही तलवार। खुद रोम में न्याय की देवी के दाएं हाथ में तलवार की जगह पुस्तक दिखाई गई है। हो सकता है कि न्याय की नई भारतीय देवी के हाथों में तलवार की जगह संविधान देने का विचार इसी से आया हो।
वैसे भारतीय परंपरा में ‘न्याय की देवी’ जैसी कोई संकल्पना नहीं है। सनातन धर्म में शनि को ही न्याय का देवता कहा गया है। लेकिन शनि भय और अनिष्ट का प्रतीक ज्यादा हैं। इसका कारण शायद है कि भारतीय दर्शन में न्याय शास्त्र की विशद व्याख्या तो है, लेकिन ऐहिक जीवन में किए गए अपराधों की संहिताबद्ध विधि प्रणाली के जरिए सुनवाई कर दंड देने जैसी सुस्पष्ट व्यवस्था नहीं है। हम जीवन को समग्र रूप देखते हैं और जीवन भर के पाप और पुण्य कर्मों का फल अगले जन्म में भोगने अथवा इन सबसे मुक्ति के बतौर मोक्ष पाने में विश्वास करते हैं। यह फल धर्म और अधर्म के हिसाब से किए गए कार्यों के मुताबिक पुनर्जन्म में श्रेष्ठ अथवा निम्न योनि में जन्म के रूप में होता है। ऐसे में शायद भारतीयों को किसी ‘न्याय की देवी’ की अलग से कल्पना की जरूरत ही न पड़ी हो। दूसरे, ज्यादातर विवाद पंचायत अथवा सामाजिक स्तर पर ही निपट जाते थे, इसलिए अलग से अदालत जैसी व्यवस्था की आवश्यकता नहीं थी। दूसरे, राजा ही सर्वोच्च अदालत था और उसका धर्माचरण ही न्याय की गारंटी था। 
बहरहाल, सु्प्रीम कोर्ट में स्थापित नई प्रतिमा की स्थापना के पीछे परिकल्पना प्रधान न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड की है। वो चाहते थे कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में ‘न्याय की देवी की छवि भी भारतीय हो। यह बात मूर्तिकार विनोद गोस्वामी की कृति में भी दिखाई देती है। नई प्रतिमा में देवी का चेहरा भारतीय है। वह जस्टिशिया की तरह आक्रामक और रौबदार न होकर सौम्य है।
नई देवी रोमन स्त्रियों की तरह ट्यूनिक की बजाए साड़ी पहने हुए है। उसकी आंखे स्पष्ट रूप से दुनिया देख रही हैं और दाएं हाथ में तलवार की जगह देश का राष्ट्रीय ग्रंथ ‘संविधान’ है। इसके पीछे यह संदेश देने की कोशिश भी है कि ‘न्याय की देवी’ की प्रतिबद्धता संविधान की भावना के अनुसार सभी को निष्पक्ष न्याय देने की है।
जज्बाती तौर पर ‘न्याय की देवी’ के भाव बदलने की यह कोशिश अच्छी है, लेकिन व्यवहार में इस देश में निष्पक्ष और त्वरित न्याय मिलने और कानून के प्रभावी अनुपालन की कहानी बहुत आश्वस्त करने वाली नहीं है। इसका पहला कारण तो देश भर की अदालतों में न्यायाधीशों की कमी और न्याय प्रणाली का कछुए की चाल से काम करना है। अगर अदालतो में पर्याप्त संख्या में जज ही नहीं होंगे तो फैसले जल्द कैसे होंगे?
भारत सरकार ने लोकसभा में 23 जुलाई 2023 को एक सवाल के जवाब में बताया था कि देश भर में निचली अदालतों में 5388 जजों के पद खाली पड़े हैं। देश की निचली अदालतों में जजो के स्वीकृत पद 25 हजार 246 हैं, लेकिन काम 19 हजार 858 ही कर रहे हैं। इन पदों पर नियुक्तियां राज्य सरकारों को ही करनी होती हैं, लेकिन वहां भी हद दर्जे की लेतलाली है। राजनीतिक गुणा भाग हैं। जोड़ तोड़ है। हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट में जजों के रिक्त पदों पर लगभग पूरी नियुक्तियां हो गई हैं, लेकिन हाई कोर्टों में 327 जजों के पद अभी भी खाली हैं। 
एक तरफ जजों की कमी, दूसरी तरफ  अदालतों में मुकदमों का बढ़ता अंबार। उपलब्ध जानकारी के मुताबिक वर्तमान में देश की निचली अदालतों में कुल 5.1 करोड़ मामले में लंबित हैं। अकेले सुप्रीम कोर्ट में ही पेंडिंग  मामलो की संख्या 82 हजार है जबकि हाई कोर्टों में 58.62 लाख मामले फैसलों का इंतजार कर रहे हैं।
इनमें भी 42.64 लाख मामले तो दीवानी हैं। नई भारतीय न्याय संहिता में फौजदारी मामलों में तो फिर भी विवेचना की कोई समय सीमा तय की गई है, लेकिन दीवानी मामलों में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। देश की अदालतों में 1 लाख 80 हजार मामले तो ऐसे हैं, जो 30 साल से चल रहे हैं।
इनका फैसला कब होगा, कोई नहीं जानता। ऐसे में पीढि़यों तक मुकदमे चलते रहते हैं। नीति आयोग ने 2018 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में कहा था कि अदालतों में इसी तरह धीमी गति से मामले निपटते रहे तो सभी लंबित मुकदमो के निपटारे में 324 साल लगेंगे। यह स्थिति तब है कि जब 6 साल पहले अदालतों में लंबित मामले आज की तुलना में कम थे। 
न्याय के निष्पक्ष होने के साथ यह भी आवश्यक है कि वह समय रहते मिले। अन्यथा उस न्याय का, चाहे वह कितना भी निष्पक्ष क्यों न हो, का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है। आपराधिक और दीवानी विवादों के जितने मुकदमे अदालतों में पहुंच रहे हैं, उस तुलना में उनकी सुनवाई करने और फैसला देने वालों जजों की संख्या बहुत कम है। आज भारत में हर 10 लाख की आबादी पर औसतन 21 जज काम कर रहे हैं। जबकि यूरोप में यही औसत प्रति दस लाख 210 और अमेरिका में 150 जजों का है।
अगर हम अमेरिका के मानदंड को भी मानें तो भारत की 145 करोड़ की आबादी पर लंबित मुकदमों  के निपटारे के लिए कुल 2 लाख 17 हजार जज चाहिए जबकि हैं 20 हजार भी नहीं। जजों की नियुक्तियों का काम सरकार का है, लेकिन ज्यादातर सरकारें इस मामले में गंभीर नहीं दिखतीं।
परोक्ष रूप से यह रवैया जनता को न्याय के अधिकार के वंचित करने जैसा ही है। इसके अलावा भारतीय अदालतों में बुनियादी और अधोसरंचनात्मक सुविधाअोंकी कमी की तो अलग ही कहानी है। बहरहाल उम्मीद की जानी चाहिए कि अगर सर्वोच्च अदालत में ‘न्याय की देवी’  की सूरत बदली है तो आगे न्याय प्रणाली की सीरत भी बदलेगी। लेकिन कैसे यह सवाल अभी बाकी है।

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