Opinion

सेक्युलर सिविल कोड: सेक्युलरवाद के पिच पर मोदी का इन स्विंगर दांव


Ajay Bokilअजय बोकिल, वरिष्ठ पत्रकार भोपाल



यह मोदी की विपक्षी पाले में सर्कल एंट्री है, हालांकि कुछ लोग इसे मोदी का नया गेम चेंजर दांव भी बता रहे हैं। इसकी सत्यता अभी अभी प्रमाणित होनी है, लेकिन इतना तय है कि इस दांव ने सेक्युलर पार्टियों में खलबली तो मचा दी है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से अपने 11वें भाषण में इस बार सेक्युलर सिविल कोड (धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता संक्षेप में कहें तो धनासं) का नया शिगूफा छेड़कर देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के भाजपा के एजेंडे को नई धार दे दी है। उन्होंने भाषण में कहा कि आज देश को कम्युनल ( साम्प्रदायिक) की जगह सेक्युलर सिविल कोड की जरूरत है।
खास बात यह है कि अमूमन सेक्युलर शब्द से ही भड़कने वाली भाजपा के ही शीर्ष नेता ने अपने मुंह से अब समान नागरिक संहिता को सेक्युलर सिविल कोड का नया नाम देकर गेंद सेक्युलर पार्टियों के पाले में सरका दी है।
हाॅकी की शब्दावली में कहें तो यह मोदी की विपक्षी पाले में सर्कल एंट्री है, हालांकि कुछ लोग इसे मोदी का नया गेम चेंजर दांव भी बता रहे हैं। इसकी सत्यता अभी अभी प्रमाणित होनी है, लेकिन इतना तय है कि इस दांव ने सेक्युलर पार्टियों में खलबली तो मचा दी है। वो अब इसका विरोध यह कहकर कर रही हैं कि मोदी द्वारा संविधान में उल्लेखित ‘काॅमन सिविल कोड’ को ‘कम्युनल’ बताना संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर  के काॅमन सिविल कोड का अपमान है।
हालांकि यह तथ्य नहीं है, बाबा साहब ने जिस संविधान के प्रारूप को तैयार किया था, उसके भाग 4 में राज्यों के नीति निदेशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का मात्र एक वाक्य में उल्लेख है- ‘राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।‘ इससे अधिक संविधान में कुछ भी नहीं है।

यानी कि समान नागरिक संहिता (यूसीसी) कैसी होगी, किन पर लागू होगी, कब तक लागू होगी आदि पर मौन है। वैसे भी नीति निदेशक तत्व सुझावात्मक हैं, आदेशात्मक नहीं।
संविधान ने राज्य से यूसीसी बनाकर उसे पूरे देश में लागू करने की अपेक्षा की है, इसे अनिवार्य नहीं किया है। संविधान सभा में भी इस मुद्दे पर काफी बहस हुई थी। इसमें मुख्यत: विरोध उन मुस्लिम सदस्यों की तरफ से हुआ, जो मानते थे कि यूसीसी मुस्लिम पर्सनल लाॅ के खिलाफ है। लिहाजा यह मामला 74 साल से टलता आ रहा है।
भाजपा को छोड़ ज्यादातर पार्टियों की राय रही है कि जब तक देश में यूसीसी पर आम सहमति नहीं हो जाती, इसे लागू करना टाला जाए, क्योंकि सेक्युलर कहलाने वाली कोई भी पार्टी अल्पसंख्यकों और खासकर मुसलमानों की नाराजी गंवारा नहीं कर सकती। इसका दूसरा अर्थ यह हो गया कि जिन पार्टियों को अल्पसंख्यक मुसलमानों के वोट ज्यादा मिलते हैं, वो ‘सेक्युलर’ हैं और बहुसंख्यक वोट पाने वाली पार्टी ‘कम्युनल’ है। यहां अल्पसंख्यक की परिभाषा भी उन्हीं राज्यों तक सीमित मानी जाती है, जिनमें हिंदू बहुसंख्यक हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एनडीए सरकार का मुखिया होते हुए भी यह साफ संकेत दे दिया है कि उनकी पार्टी भाजपा के पास केन्द्र में अपने दम पर बहुमत न होने के बाद भी वो अपने मूल एजेंडे से डिगेंगे नहीं। इसीलिए सेक्युलर सिविल कोड का नया पत्ता फेंका गया है।
अपने भाषण में मोदी ने यह भी कहा कि संविधान निर्माताओं का सपना पूरा करना हमारा दायित्व है। धर्म के आधार पर समाज को बांटने वाले कानून आधुनिक समाज स्थापित नहीं कर सकते। भाजपा का मानना है कि नाम बदलने से सेक्युलर पार्टियों को यूसीसी  विरोध की अपनी पुरानी रणनीति बदलनी पड़ेगी। जो खुद को रात दिन सेक्युलर कहाती नहीं थकती, वो एक सेक्युलर कोड की पैरवी की मुखालिफत कैसे करेंगी?
यूसीसी की विरोधी रही पार्टियों में चुप्पी
यह बात भी सही है कि यूसीसी की विरोधी रही पार्टियों ने बहुत तीखा विरोध नहीं किया है। इसका कारण शायद यह भी है कि वो यूसीसी विरोध में निहित वोटों की लामबंदी का सही अंदाजा नहीं लगा पाई हैं। मुस्लिम संगठन इसका पहले भी यह कहकर विरोध यह कहकर कर रहे थे कि शरिया कानून को बदला नहीं जा सकता। मुसलमान इसकी जगह कोई दूसरा कानून कतई स्वीकार नहीं करेंगे। इससे उनकी धार्मिक स्वतंत्रता और अस्मिता का हनन होगा।

यूसीसी विरोधियों का तर्क है कि चूंकि संविधान अनुच्छेद 25 के तहत सभी नागरिकों को लोगों को अपने-अपने धर्म के मुताबिक जीने की आजादी देता है, ऐसे में यूसीसी लागू करने का अर्थ इस आजादी को नकारने जैसा है।
जबकि यूसीसी से तात्पर्य देश में रहने वाले हर धर्म, जाति, संप्रदाय और वर्ग के लिए हर मुद्दे पर एक समान नियम-कानून लागू करना है। जिसमें सभी धर्म वालों के लिए विरासत, शादी, तलाक और गोद लेने के नियम एक ही होंगे।
उत्तराखंड में यूसीसी
वैसे यूसीसी अगर देश भर में लागू किया जाएगा तो उसका स्वरूप कैसा होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है। लेकिन राष्ट्रीय विधि आयोग ने इसे लागू करने की सिफारिश की है। इसका एक प्रारूप उत्तराखंड में सामने आया है। साथ ही गोवा में यह कानून बरसों से लागू है, जहां करीब सवा लाख मुसलमान रहते हैं।
इसी तरह उत्तराखंड अकेला राज्य है, जिसने इस साल मार्च में यूसीसी लागू कर दिया है। इस राज्य में करीब 14 लाख मुसलमान रहते हैं। उनकी ओर से बीते चार माह में कोई बड़ा विरोध दर्ज कराया गया हो अथवा इससे उनके शरीयत में कोई दखल हुआ हो, यह अभी सामने नहीं आया है।
गौरतलब है कि आज देश में अलग-अलग धर्मों खासकर हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए सामाजिक मुद्दों पर अलग-अलग कानून हैं। अतीत में देखें तो साल 1941 में हिन्दू कानून संहिता बनाने के लिए बीएन राव समिति बनी थी। इस समिति की सिफारिश पर 1956 में हिन्दुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के उत्तराधिकार से जुड़े मामलों को सुलझाने के लिए हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम लागू हुआ।

मुस्लिम, ईसाई और पारसियों के लिए अलग कानून रखे गए थे। 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम बना। यानी कि जो किसी भी रूप या विकास में हिन्दू है, जिनमें वीरशैव, लिंगायत, ब्रह्म, प्रार्थना या आर्य समाज के अनुयायी हैं, उन पर हिन्दू विवाह अधिनियम लागू है। इस कानून की धारा-2 (बी) के अनुसार यह धर्म से बौद्ध, जैन और सिख है लोगों पर भी लागू है।
मुस्लिम, क्रिश्चियन, पारसी और यहूदियों के अपने-अपने कानून हैं। वहीं, भारतीय मुसलमान मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अप्लीकेशन एक्ट 1937 को शरीयत कानून मानते हैं। यह मुसलमानों के बीच विवाह, गोद लेने, विरासत, तलाक और उत्तराधिकार जैसे व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने के लिए इस्लामी कानून को मान्यता देता है।
प्रधानमंत्री शायद यह मान रहे हैं कि यूसीसी को लेकर अब तक का विरोध मुख्यत: इसे जाने बगैर आशंका आधारित ज्यादा है। दूसरे, यूसीसी में समान (काॅमन) शब्द का अर्थ यह लिया जा रहा है कि सब धान बाइस पसेरी होगा तो यह गलत है। किसी भी धर्म समुदाय अथवा वर्ग की अस्मिता केवल उनकी परंपरा अथवा पहनावे से तय नहीं होती। बल्कि समाज में उसकी भूमिका, प्रभाव और वर्चस्व से ज्यादा तय होती है।
यह समझना मुश्किल है कि जब देश के दो राज्यों के दस लाख मुसलमानों के शरीयत पर कोई विपरीत असर नहीं हुआ तो बाकी प्रदेशों के लगभग बीस करोड़ मुसलमानों का पर्सनल लाॅ इससे कैसे प्रभावित होगा? या फिर यूसीसी का विरोध सिर्फ इसलिए किया जा रहा है कि यह भाजपा और प्रकारांतर से आरएसएस के कोर एजेंडे में है?
लगता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने काॅमन सिविल कोड को सेक्युलर बताकर विपक्षी विकेट पर इस बार इन स्विंगर गेंद फेंकी है। अगर उन्हें शब्द पर ही आपत्ति है तो भई ‘सेक्युलर’ का विरोध करके दिखाएं। विपक्षी दल इस नए दांव की काट खोजने में लगे हैं। वो भाजपा और मोदी के खिलाफ उसी दांव को नई छौंक के साथ चलने की कोशिश कर रहे हैं, जिसके जरिए भाजपा कांग्रेस पर यह पलटवार करती रही है कि उसने बाबा साहब के संविधान में बदलाव किया और अब खुद संविधान को बचाने की दुहाई दे रही है। अलबत्ता विपक्षी इस बात से हैरान जरूर हैं कि पिछले चुनाव में खुलकर ‘कम्युनल’  संदेश देने वाले पीएम अचानक यूसीसी के मामले में धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार कैसे हो गए?
यह सचमुच कोई नीतिगत बदलाव है या फिर चुनाव जीतने का फिर एक नया शोशा भर है? वैसे भाजपा संविधान के मुद्दे पर लोकसभा चुनाव के बाद ज्यादा सतर्क है। महाराष्ट्र में आगामी विस चुनाव के मद्देनजर राज्य में गांव गांव में भाजपा कार्यकर्ता संविधान की प्रतियां बांटकर यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि भाजपा बाबा साहब के संविधान के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध है। इसे बदलने का उसका कोई इरादा नहीं है।
भाजपा को डर है कि विपक्षी दल लोकसभा चुनाव की तरह फिर इस मुद्दे पर नया नरेटिव खड़ा करके उसे बोल्ड न कर दें। हालांकि इस बात की राजनीतिक टेस्टिंग अभी होनी है कि समान नागरिक संहिता अथवा सेक्युलर नागरिक संहिता में वोटों की गोलबंदी की ताकत कितनी है।
पक्ष और पक्ष दोनो को ही इससे बहुत ज्यादा फायदा अगर नहीं दिखा तो हो सकता है कि यह मुद्दा फिर ठंडे बस्ते में चला जाए या फिर रस्मी विरोध के बाद यह कानून संसद में पारित भी हो जाए। लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि केन्द्र में सत्तारूढ़ एनडीए में इसको लेकर कितनी सहमति है, यह भी अभी साफ होना है।

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