Opinion

तिरुपति बालाजी प्रसादम् कांड: धार्मिक, नैतिक और राजनीतिक सवालों के बीच आस्था


लेखक : अजय बोकिल वरिष्ठ पत्रकार

हिंदुओं के प्रसिद्ध तीर्थ तिरूपति बालाजी मंदिर के प्रसाद में चर्बी की मिलावट का सनसनीखेज मामला उजागर कर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और उप मुख्यमंत्री पवन कल्याण ने पूर्व मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी पर हमला कर तगड़ा राजनीतिक निशाना भले साधा हो, लेकिन इस समूची घटना में हिंदू मंदिरों में बनने, भगवान को चढ़़ने और मंदिरों के बाहर दुकानों में बिकने वाले प्रसाद की प्रामाणिकता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
तिरूपति मामला सामने आने के बाद देश के कई बड़े मंदिरों ने अपने यहां बनने वाले प्रसाद की शुद्धता और गुणवत्ता की जांच करानी  शुरू कर दी है तो दूसरी तरफ मंदिरों के बाहर  दुकानों में बिकने वाले प्रसाद की शुद्धता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। यहां तक कहा जा रहा है लोग भगवान को प्रसाद के रूप में केवल फल व मेवे ही चढ़ाएं। इस पूरे मामले पर हिंदू समाज में खलबली है। संदेश यह जा रहा है कि लोगों ने भगवान के प्रसाद को भी नहीं छोड़ा। साथ ही प्रसाद की शुद्धता के मापदंड तय करने तथा सभी हिंदू मंदिरों का प्रबंधन हिंदू समाज के हाथों में सौंपने व  सनातन धर्म रक्षा बोर्ड बनाने जैसी मांग भी उठने लगी है।
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विश्व हिंदू परिषद के डॉ. सुरेंद्र जैन ने तिरुपति लड्डू मामले की उच्च स्तरीय न्यायिक जांच की मांग की है ताकि दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिल सके। उन्होंने  हिंदू मंदिरों के समाजीकरण की मांग भी की है। इस गंभीर मुद्दे के तीन अहम पहलू हैं, पहला तो धार्मिक है। हिंदू मंदिरों में बनने और चढ़ने वाले प्रसाद की शुद्धता और प्रामाणिकता को लेकर हिंदू धर्म में  न तो स्पष्ट गाइड लाइन और न ही कोई निश्चित मापदंड।
मोटे तौर पर सभी इस बात पर एकमत है कि भगवान का  प्रसाद शुद्ध शाकाहारी हो (इसमें केवल गुवाहाटी का कामाख्या देवी मंदिर अपवाद है, जहां शाकाहारी नैवेद्य के साथ मांसाहारी (मछलीयुक्त) प्रसाद का भी भोग लगता है और जिस  पर किसी को आपत्ति नहीं हुई) तथा मीठा हो। देवता मीठा ही पसंद करते हैं, क्योंकि मीठा प्रसन्नता का परिचायक है। हालांकि हिंदू धर्म में ‘एक देवता, एक प्रसाद’ जैसा कोई फॉर्मूला लागू नहीं है। हर देवता को अलग ( भक्तों की भावना और स्थानीय उपलब्धता के अनुसार) प्रसाद चढ़ता है।
मसलन भगवान विष्णु को खीर अथवा सूजी का हलवा,शिव को पंचामृत तो कुछ जगह भांग का प्रसाद भी चढ़ाया जाता है, देवी सरस्वती को दूध पंचामृत, तिल के लड्डू, देवी दुर्गा को खीर, मालपुए, फल, गणेशजी को मोदक अथवा लड्डू, भगवान राम को केसर भात,गुड़ से बने लड्डू, हनुमानजी को पंच मेवा, लड्ड़ू, श्रीकृष्ण को माखन मिश्री, काल भैरव को मदिरा का भोग लगता है।
जहां तक मंदिरों में बनने वाले प्रसाद की बात है तो देश में कुछ बड़े मंदिर ही हैं, जिनमें प्रसाद बनता है और भक्तों को बांटा जाता है। ऐसे मंदिरों की संख्या दो दर्जन तक हो सकती है। बाकी मंदिरों में भक्त खुद ही बाजार से प्रसाद लाते हैं, और उसे मंदिर में चढ़ाते है। हालांकि मंदिरों में प्रसाद, फल फूल नारियल आदि की बिक्री और खपत का अलग अर्थशास्त्र है और यह हजारों लोगों को रोजगार  भी देता है।
बाॅम्बे आईआईटी के पूर्व छात्रों द्वारा किए एक सर्वे में बताया गया कि भारत में कुल 7 लाख मंदिर हैं। जबकि एक वेबसाइट ट्रैवल ट्राइंगल के मुताबिक भारत में मंदिरों की कुल संख्या 20 लाख तक हो सकती है। इसे सही माने तो भारत में मंदिरो के प्रसाद का कारोबार हजारों करोड़ रू. का है।
दूसरा मुद्दा नैतिक है। तिरूपति मंदिर सैंकड़ो सालों से भक्तों की आस्था का केन्द्र रहा है। प्रतिदिन हजारों भक्त यहां आते हैं। लिहाजा प्रसाद की आवश्यकता भी उसी अनुपात में होती है। यही कारण है कि तिरूपति तिरूमाला देवस्थानम् (टीटीडी) ट्रस्ट खुद प्रसाद बनवाता और वितरित करता है।
रोजाना औसतन यहां साढ़े 3 लाख प्रसाद के लड्ड़ तैयार होते हैं। प्रत्येक लड्डू की कीमत 50 रू. होती है। इसमें हर दर्शनार्थी को प्रसाद के रूप में मुफ्त दिया जाने वाला लड्डू छोड़ दें तो करीब 3 लाख लड्ड़ रोजाना बिकते हैं। इसका मूल्य करीब 1.5 करोड़ रू. प्रतिदिन होता है। यानी कि सालाना 548 करोड़ रू.। आधिकारिक जानकारी के अनुसार तिरूपति मंदिर को लड्डू बनाने सालाना 2800 टन घी की जरूरत होती है।  320 रू. प्रति किलो के थोक भाव से यह राशि करीब 832 करोड़ रू होती है। जो घी के बाजार भाव के हिसाब से लगभग 800 करोड़ रू. कम है। इसमें लड्डू बिकने की औसतन 5 सौ करोड़ की राशि कम कर दें तो बाजार भाव के हिसाब से मंदिर को मात्र 300 करोड़ रू. सालाना की बचत होती।  तो क्या 800 करोड़ रू. बचाने के लिए मंदिर प्रबंधन ने भक्तों की आस्था के साथ खिलवाड़ किया? जबकि मंदिर को हर साल 1500 करोड़ रू. का चढ़ावा मिलता है।
यह पूरा घोटाला उजागर होने के बाद आंध्र सरकार ने असली घी सप्लाई का ठेका फिर से कर्नाटक की दुग्ध सहकारी संघ को दे दिया है, जिसने 475 रू. प्रति किलो से कम में घी सप्लाई करने से मना कर दिया था और प्रसाद मिलावट कांड के पहले भी वही सप्लाई कर रहा था। आंध्र के सीएम चंद्रबाबू नायडू का आरोप था कि पूर्ववर्ती जगन मोहन रेड्डी की सरकार के दौरान तिरूपति में प्रसादम बनाने के लिए मात्र 320 रू. प्रति किलो के भाव से घी सप्लाई करने वाली तमिलनाडु की डेयरी कंपनी एआर डेयरी प्राॅडक्टस को ठेका दिया गया। गड़बड़ी की शिकायत के बाद कंपनी द्वारा सप्लाई किया जाने वाला घी एनडीडीबी की लैब में घटिया पाया गया और इसमे मछली का तेल और जानवरों की चर्बी की मिलावट मिली।
भगवान के प्रसाद में इस्तेमाल घी में ऐसी मिलावट महापाप है और भगवान और भक्तों की आस्था के साथ धोखा है। हालांकि कंपनी का कहना है कि उसने ऐसा कुछ नहीं किया। यहां बड़ा सवाल यह है कि आज बाजार में शुद्ध घी  5 सौ रू. किलो से कम में कहीं भी उपलब्ध नहीं है तो फिर एआर डेयरी 320 रू. प्रति किलो में शुद्ध घी सप्लाई किस आधार पर कर रही थी, वह भी कंपनी का मुनाफा और परिवहन खर्च जोड़कर।
दूसरे, इतने कम रेट पर टेंडर जाने पर तिरूपति प्रबंधन को शक क्यों नहीं हुआ? यह शंका तब भी क्यों नहीं उठी जब एआर डेयरी द्वारा घटिया की घी की सप्लाई शुरू हुई और उसका इस्तेमाल प्रसाद बनाने में होने लगा? अगर घी के नाम पर मछली का तेल मिलाया गया था तो उसकी बदबू तो तुरंत ही आ जाती है। उस वक्त प्रसाद बनाने वाले तिरूपति के ब्राह्मण क्या कर रहे थे? सरकार बदलने पर ही यह मुद्दा जोर शोर से क्यों उठा?
यहां असल मुददा नैतिकता और नीयत का है। अगर मंदिर के कर्ता धर्ता ही मिले हुए हों तो भगवान भी कुछ नहीं कर सकते। आप सरकार से लेकर समाज के हाथ में भी मंदिर का प्रबंधन दे देंगे और नीयत शुद्ध नहीं रही तो भ्रष्टाचार बंद होने वाला नहीं है। सवाल यही भी है कि हिंदू मंदिरों को सरकार नियंत्रित ट्रस्टों के हाथों में देने की नौबत क्यों आई? इसका मुख्य कारण भी कुप्रबंधन और पंडे पुजारियों का भ्रष्टाचार रहा है।
अभी भी अंधिकांश मंदिरों में चढ़ावे की रसीद कटाने के बाद भी पंडे पुजारी भक्तों से‘दान’की अपेक्षा रखते ही हैं। कई बार तो इसके लिए जोर जबरदस्ती भी की जाती है। श्राद्ध कर्म वाले स्थानों पर तो यह शोषण बेशर्मी की हद तक है। इस पर कैसे और कौन रोक लगाएगा? भगवान के हर काम शास्त्रोक्त पद्धति के साथ साथ अंत:करण की पवित्रता का आग्रह भी क्यों नहीं हो चाहिए? 
चौथे, क्या अब मंदिर प्रसाद की शुद्धता के लिए भी एफएफएसएआई कोई मानक और उनका कड़ाई से पालन तय करेगा? या फिर खुद हिंदू समुदाय ही इसकी पहल करेगा? काशी विद्वत परिषद ने कहा है कि वह और  अखिल भारतीय संत समिति मिलकर देश के सभी बड़े मंदिरों के प्रबंधक और व्यवस्थापकों के साथ बैठक करेंगे। इस बैठक के बाद प्रसाद के बारे में नई व्यवस्था लागू करने के निर्णय  सरकार को अवगत कराया जाएगा।  
तिरूपति प्रसादम कांड का दूसरा पक्ष राजनीतिक है। चंद्रबाबू नायडू और पवन कल्याण ने तिरूपति प्रसादम् की पवित्रता के सवाल पर विरोधी जगन मोहन रेड्डी को घेर कर खुद को बड़ा हिंदू हितैषी साबित करने की कोशिश की है। यानी वे हिंदुत्ववादी भाजपा को आंध्र में पैर पसारने पर अभी से ब्रेक लगाना चाहते हैं। नायडू की रणनीति बहुत साफ है, एक तरफ वह खुद को कट्टर हिंदू के रूप में पेश कर रहे हैं तो दूसरी तरफ राज्य में मुसलमानों को धर्म के आधार पर आरक्षण भी दे रहे हैं और सरकार में शामिल भाजपा चुप है।
बहरहाल प्रसादम् कांड ने मंदिरो में प्रसाद की पवित्रता और मानकीकरण की बहस छेड़ दी है। इसका कोई सकारात्मक हल निकले तो अच्छा ही है।

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