Opinion

सिखों पर विवादित बयान देकर राहुल गांधी क्या सिद्ध करना चाहते हैं?

लेखक : अजय बोकिल, वरिष्ठ पत्रकार

इसमें दो राय नहीं कि मोदी और संघ की बेधड़क आलोचना कर राहुल ने अपनी एक राजनीतिक जमीन पुख्ता की है। हालांकि उनकी यह आलोचना हमेशा तार्किक हो, यह जरूरी नहीं है। लेकिन समर्थ को गरियाने की हिम्मत दिखाना भी साहस का प्रतीक माना जाता है।
दरअसल, अमेरिका में भी राहुल कुछ वैसा ही बोलेंगे, जैसा कि उन्होंने यूके दौरे के समय बोला था, यह अपेक्षित ही था। नेता प्रतिपक्ष के नाते उन्हें पीएम और सरकार की आलोचना का पूरा अधिकार है। लेकिन मुद्दे की बात करते करते उनकी गाड़ी कब पटरी से उतर जाए, यह कहना मुश्किल है।
विस्तार
वरिष्ठ कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी प्रायोजित अमेरिका दौरा हंगामे का कारण बनेगा, इसका अंदाजा तो पहले ही से था। इसका एक कारण यह भी है कि वो पीएम मोदी, हिंदुत्व, भाजपा और आरएसस की आलोचना को लेकर जितने कंफर्टेबल परदेस में नजर आते हैं, उतना शायद स्वदेश में नहीं आते। इसमें दो राय नहीं कि मोदी और संघ की बेधड़क आलोचना कर राहुल ने अपनी एक राजनीतिक जमीन पुख्ता की है। हालांकि उनकी यह आलोचना हमेशा तार्किक हो, यह जरूरी नहीं है। लेकिन समर्थ को गरियाने की हिम्मत दिखाना भी साहस का प्रतीक माना जाता है।
दरअसल, अमेरिका में भी राहुल कुछ वैसा ही बोलेंगे, जैसा कि उन्होंने यूके दौरे के समय बोला था, यह अपेक्षित ही था। नेता प्रतिपक्ष के नाते उन्हें पीएम और सरकार की आलोचना का पूरा अधिकार है। लेकिन मुद्दे की बात करते करते उनकी गाड़ी कब पटरी से उतर जाए, यह कहना मुश्किल है।
जब देश में दो राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उसी वक्त राहुल विदेश क्यों गए, इसका कोई ठीक ठीक जवाब नहीं है सिवाय इसके कि यह भी एक प्रायोजित एजेंडे का हिस्सा था। उनकी यात्रा आधिकारिक नहीं थी। अमेरिका में बसे टैक्नोक्रेट और इंडियन अोवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने पहले ही कहा था कि राहुल की यह यात्रा निजी है। लेकिन इस निजी यात्रा को भी इस ढंग से डिजाइन किया गया था  ताकि उसका अलग राजनीतिक संदेश जाए और राहल जो भी कहें, उस पर दुनिया खासकर भारत में जमकर बवाल मचे। वैसा ही हुआ भी।

कुछ बातें जो राहुल ने कही, वो पहले भी कहते आए हैं। मसलन भारत में लोकतंत्र कमजोर हुआ है, लोकसभा के चुनाव निष्पक्ष नहीं थे, भारत एक विचार नहीं है, कई विचारों से बना है, नरेन्द्र मोदी से अब कोई नहीं डरता वगैरह। लेकिन राहुल ने सबसे खतरनाक बयान भारत में सिखों की धार्मिक आजादी को लेकर दिया और इस बयान के समर्थन में अमेरिका में बैठे आंतकी सिख नेता गुरुपतवंतसिंह पन्नू ने जिस ढंग से सकारात्मक प्रतिक्रिया दी, वह वाकई चिंतित करने वाली है।
राहुल ने जो बात कही थी, वह भी बहुत चलताऊ तरीके से थी।  वॉशिंगटन डीसी में इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के कार्यक्रम में राहुल ने एक सवाल का जवाब देते हुए कहा-
हमे बसे पहले समझना होगा कि लड़ाई राजनीति को लेकर नहीं है। उसी कार्यक्रम में उन्होंने एक सिख व्यक्ति की ओर इशारा करते हुए कहा कि लड़ाई इस बात की है कि एक सिख होने के नाते क्या उन्हें भारत में अपनी पगड़ी पहनने की अनुमति मिलेगी? सिख होने के नाते इन्हें भारत में कड़ा पहनने की अनुमति मिलेगी? सिर्फ़ इनके लिए ही नहीं बल्कि सभी धर्मों के लिए ये लड़ाई है।”

बहुत गैरजिम्मेदारी से की गई इस टिप्पणी में राहुल ने यह नहीं बताया कि ऐसा कौन सा सिख उन्हें मिला, जिसने कहा हो कि भारत में वह पगड़ी नहीं बांध सकता या फिर कड़ा पहन कर गुरुद्वारे में नहीं जा सकता। वैसे भी मर्यादा का पालन करते हुए कोई भी व्यक्ति गुरुद्वारे में मत्था टेक सकता है। राहुल ने जो कहा सो कहा, लेकिन उस बयान पर आंतकी पन्नू का जो बयान आया, वो कहीं ज्यादा खतरनाक है।
पन्नू ने अपने लिखित बयान में कहा-
वॉशिंगटन डीसी के जिस कार्यक्रम में राहुल गांधी ने यह बात कही, वहां कई खालिस्तान समर्थक सिख बैठे हुए थे। राहुल ने भारत में सिखों के साथ भेदभाव की बात कहकर हमारे संगठन‘सिख फाॅर जस्टिस’ की खालिस्तान पर वैश्विक जनमतसंग्रह की मांग का न्यायसंगत ठहराया है।
यही नहीं पन्नू ने यह भी कहा कि राहुल के बयान ने इस बात को सही सिद्ध किया है कि भारत में सिखों के साथ 1947 से ही भेदभाव होता आया है। इससे पंजाब को भारत से अलग करने के लिए जनमतसंग्रह की हमारी मांग का औचित्य ही सिद्ध होता है। हालांकि राहुल के अमेरिका में िदए इस बयान की केन्द्रीय मंत्री हरदीपसिंह पुरी ने कटु आलोचना की और भाजपा प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने राहुल की बात को ‘बचकाना टिप्पणी’ कहा।
अब सवाल यह है कि राहुल इस बयान के जरिए क्या उसी आग से फिर खेलना चाहते हैं, जिसकी आग में खुद उनकी दादी श्रीमती इंदिरा गांधी झुलसी और उन्हें अपनी जान सिख आतंकियों के हाथों गंवानी पड़ी। इंदिराजी ने भी पंजाब में कांग्रेस के क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के चलते खालिस्तान समर्थक जनरैलसिंह भिंडरावाले को शह दी थी। उसी भिंडरावाले ने अकाल तख्त पर कब्जा कर लिया था। इस अलगाववाद का नतीजा न केवल इंदिरा गांधी बल्कि पूरे देश ने भुगता।
पंजाब एक दशक तक अलगाववाद की आग में जलता रहा।  तो क्या भारत में सिखों के साथ भेदभाव की काल्पनिक बात उठाकर क्या राहुल उसी अलगाववाद के जहर को सींचने की गलती जानबूझकर कर रहे हैं? क्या वो उसी स्वतंत्र खालिस्तान की मांग को हवा दे रहे हैं, जिसके खिलाफ उनकी दादी और पार्टी अब तक लड़ती आई है?
क्या वो देश के एक और विभाजन का परोक्ष रूप से समर्थन कर रहे हैं?   राहुल के इस बयान पर उनकी पार्टी कांग्रेस से भी कोई समर्थक आवाज नहीं उठी है। न ही अब तक कोई सफाई आई है। ज्यादातर कांग्रेसी उनके इस बयान से हैरान हैं। क्योंकि राहुल का यह बयान किसी राष्ट्रीय पार्टी के सबसे बड़े नेता से तो कतई अपेक्षित नहीं है।

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