लेखक : अजय बोकिल, वरिष्ठ पत्रकार
तमिलनाडु में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की बिसात बिछ गई है। सत्तारूढ़ डीएमके ने जहां भाषा युद्ध और परिसीमन में संभावित अन्याय को मुद्दा बनाकर मोदी सरकार और भाजपा पर हमले शुरू कर िदए हैं तो वहीं केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने डीएमके को महाभ्रष्ट सरकार बताकर उसे हटाने की दुंदुभि बजा दी है। यह साफ है कि राज्य में अब तक राजनीतिक रूप से कमजोर और हिंदुत्ववादी माने जाने वाली भाजपा ने आगामी चुनाव पूरी ताकत से लड़ने का मन बना लिया है। ऐसे में राज्य के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने फिर द्रविड राजनीति की शरण ली है। उन्होंने यह धमकी देकर कि ‘तमिलनाडु एक और भाषा युद्ध के लिए तैयार’ है, केन्द्र सरकार और भाजपा के खिलाफ आगमी विधानसभा चुनाव का शंखनाद कर दिया है। स्टालिन ने चुनाव क्षेत्र परिसीमन में तमिलनाडु को होने वाले संभावित घाटे का मुद्दा उछालकर हिंदी विरोध और परिसीमन के मुद्दे पर दक्षिणी राज्यों को एकजुट करने की सुनियोजित राजनीतिक कोशिशें शुरू कर दी हैं। हालांकि हिंदी विरोध पर उन्हें ज्यादा समर्थन शायद न मिले, लेकिन परिसीमन पर स्टालिन को दक्षिणी राज्यों का साथ मिल सकता है, क्योंकि इन राज्यों का तर्क है कि चूंकि उन्होंने अपने राज्यों में जनसंख्याो वृद्धि को कंट्रोल किया, इसके बदले में उन्हें संसद में कुछ सीटें गंवानी पड़ सकती हैं। यह दक्षिण भारत की संसद में घटती आवाज का और क्षेत्रीय असंतुलन का पर्याय होगा, जो भारत जैसे संघीय राज्य में स्वीकार्य नहीं है। अगर ऐसा हुआ तो देश एक अोर अवांछित विभाजन की अोर धकेला जा सकता है। हालांकि केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने तमिलनाडु में अपनी सभाअों में परिसीमन में ‘अन्याय’ की आशंका को पूरी तरह खारिज किया है।
दरअसल तमिलनाडु विधानसभा के चुनाव अगले साल अप्रैल में होने वाले हैं और सत्तारूढ़ द्रविड मुन्नेत्र कडघम ने सत्ता में वापसी के लिए अभी से राजनीतिक मोर्चाबंदी शुरू कर दी है। जिसमें तमिल भावनाअो को खुलकर हवा देना शामिल है। पिछले विस चुनाव में उसने अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी अन्नाद्रमुक ( एआईएडीएमके) को करारी मात दी थी, जिसका मुख्य कारण अम्मा जयललिता के निधन के बाद एआईएडीएम का नेता विहीन होना और पार्टी की अंतर्कलह थी। एआईएडीएमके के अब दो धड़े हैं। कुलमिलाकर यानी राज्य में विपक्ष का स्पेस खाली है। भाजपा धीरे धीरे इस स्पेस को भरने की कोशिश कर रही है। हालांकि उसे अभी तक कोई बड़ी चुनावी सफलता नहीं मिली है, लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में उसका वोट प्रतिशत तेजी बढ़ा है। बीजेपी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की राजनीति करती है। जबकि डीएमके और एआईडीएमके द्रविड और तमिल अस्मिता की राजनीति करती रही हैं। हिंदी थोपने और उत्तर भारत को आर्य संस्कृति बताकर उसका विरोध द्रविड पार्टियों का प्रमुख औजार है। दोनो पार्टियों के बीच सत्ता की अदलाबदली करिश्माई नेता के िहसाब से होती रही है। वैचारिक रूप से दोनो एक ही हैं। इस दलदल में भाजपा और आरएसएस की हिंदुत्व केन्द्रित राष्ट्रवाद की राजनीति एक अलग तासीर और आग्रह लिए हुए है, जिसका स्वीकार तमिल मानस बहुत धीरे-धीरे कर रहा है। अगले विस चुनाव में भी भाजपा को कोई बड़ी सफलता मिलेगी, यह मान लेना जल्दबाजी होगी, लेकिन उसकी राजनीतिक जमीन मजबूत हो सकती है। संभव है कि भाजपा भविष्य में सत्ता की दावेदार भी हो जाए। यही डीएमके की िचंता का मुख्य कारण है। मसलन 2020 के विस चुनाव में भाजपा को तमिलनाडु में मात्र 2.62 प्रतिशत वोट और 4 सीटें मिली थीं। यह चुनाव भाजपा ने एआईएडीएमके के साथ गठबंधन में लड़ा था। बाद में 2024 के लोकसभा चुनाव में एआईएडीएमके ने भाजपा से रिश्ता तोड़कर दूसरी पार्टियों के साथ गठबंधन कर लिया। लोस चुनाव में एआईएडीएमके को भी कोई सीट नहीं मिली। सीट भाजपा को भी नहीं मिली, लेकिन उसका वोट बढ़कर 18.18 प्रतिशत हो गया। यद्यपि इस वोट प्रतिशत वृद्धि में उन छोटे का दलों का भी योगदान था, जिनसे गठबंधन कर भाजपा एनडीए के बैनर तले चुनाव में उतरी थी। जबकि इस लोस चुनाव में डीएमके गठबंधन को 46.97 फीसदी तथा मुख्य विपक्षी पार्टी एआईएडीएमके को 23.05 प्रतिशत वोट मिला। अपनी एकजुटता और द्रविड राजनीति के मुख्य पैरोकार के रूप में डीएमके ने राज्य में प्रतिद्ंवद्वी एआईएडीएमके को काफी हद तक खत्म कर िदया है, लेकिन भाजपा को वैचारिक, जमीनी और संसाधन के स्तर पर कैसे रोका जाए, यह उसकी पहली चिंता है।
यही कारण है कि एम के स्टालिन ने नई शिक्षा नीति और परिसीमन को मुद्दा बनाते हुए पोजिशनिंग शुरू कर दी है। ताजा विवाद तब शुरू हुआ जब केन्द्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने वाराणसी में चेतावनी के स्वर में कहा कि देश में शैक्षणिक समानता के लिए सभी राज्यों को अपने यहां नई शिक्षा नीति लागू करनी होगी। तभी उन्हें केन्द्र से आर्थिक सहायता मिलेगी। इस पर स्टालिन ने केन्द्रीय शिक्षा मंत्री को पत्र लिखकर कहा कि वो राज्य के रोके गए 2152 करोड़ रू. जारी करे। उन्होंने कहा कि तमिलनाडु किसी हाल में अपनी द्विभाषा ( तमिल और अंग्रेजी) में शिक्षा की नीति से नहीं डिगेगा। स्टालिन ने कहा कि हम भाषाई आधार पर ‘ब्लैकमेल’ करने का विरोध करेंगे।
गौरतलब है कि नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के अनुसार, स्कूलों में छात्रों को तीन भाषाएं सीखनी होंगी, जिनमें से कम से कम दो भारतीय मूल की भाषाएं होंगी। इसका मतलब है कि राज्य की भाषा के अलावा, बच्चों को कम से कम एक अन्य भारतीय भाषा सीखनी होगी – ज़रूरी नहीं कि वह हिंदी ही हो। हालांकि, तमिलनाडु को आशंका है कि यह केन्द्र द्वारा हिंदी को ‘पिछले दरवाजे’ से थोपते हुए राज्य की भाषाई स्वतंत्रता को छीनने की कोशिश है।
दरअसल त्रिभाषा नीति उसी पुराने त्रिभाषा फार्मूले का नया रूप है, जिसमें सभी राज्यों से अपने यहां बच्चों को तीन भाषा पढ़ाने की अपेक्षा की गई है। इनमें एक हिंदी अथवा स्थानीय भाषा, दूसरी अंग्रेजी तथा तीसरी कोई आधुनिक भारतीय भाषा होगी। नई शिक्षा नीति में स्पष्ट कहा गया है कि कोई भी भाषा किसी भी राज्य पर थोपी नहीं जाएगी। देश के ज्यादातर राज्यों ने या तो नई शिक्षा नीति को लागू कर िदया है या फिर उस पर अपनी सहमति दे दी है। केवल तमिलनाडु ऐसा राज्य है, जिसने 1968 की पहली शिक्षा नीति को भी ठीक से लागू नहीं किया था, क्योंकि उसमें तीसरी भाषा के रूप में हिंदी पढ़ाने की बात थी। नई शिक्षा नीति में अधिकांश भारतीय भाषाअों की जननी संस्कृत को अलग से सभी स्तर की कक्षाअों में पढ़ाने की बात भी है। इस पर स्टालिन का आरोप है कि संस्कृत की आड़ में तमिल भाषा का महत्व कम किया जा रहा है, जबकि तमिल भी संस्कृत जितनी ही पुरानी और सभी द्रविड भाषाअों का मूल है। उधर स्टालिन की केन्द्र को इस ‘धमकी’ के बाद केन्द्रीय शिक्षा मंत्री ने कहा कि इसका ‘उचित जवाब’ दिया जाएगा। अब सवाल यह कि क्या नई शिक्षा नीति को लेकर केन्द्र और राज्य में कोई समन्वय संभव है या फिर विस चुनाव तक तो दोनो में तलवारें खिंची रहेंगी। दरअसल भाजपा और संघ के हिंदुत्व से सीधे सनातन पर शिफ्ट होने के पीछे भी डीएमके ही कारण थी। तमिलनाडु सरकार में उपमुख्य मंत्री और मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टालिन ने साल भर पहले चेन्नई में एक प्रायोजित कार्यक्रम में हिंदू धर्म की मुख्य धारा सनातन को ‘बीमारी’ की संज्ञा दी थी। इसके बाद भाजपा और संघ के सनातन को अपने प्रचार का मुख्य हथियार बना लिया। इसका उसे चुनावों में फायदा भी मिला।
हिंदी को लेकर तमिलनाडु का विरोध 1937 से है। वह देश में अकेला ऐसा राज्य है, जहां स्कूलों में राजभाषा और अघोषित रूप से राष्ट्रभाषा का स्वरूप ले रही हिंदी नहीं पढ़ाई जाती। इससे नुकसान उन बच्चों का होता है, तो तमिलनाडु के बाहर अन्य राज्यों में नौकरी धंधा करना चाहते हैं। नतीजा यह है कि विद्यार्थी निजी स्तर पर िहंदी सीख रहे हैं। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति द्वारा आयोजित की जाने वाली हिंदी परीक्षा में तमिल विद्यार्थियो की बढ़ती संख्या इसका प्रमाण है। इसका सीधा अर्थ यही है कि तमिलनाडु में हिंदी का विरोध मुख्यकत: राजनीतिक है और द्रविड राजनीति की प्रासंगिकता को कायम रखने की एक प्रभावी आड़ है। जबकि बीती आधी सदी में काफी कुछ बदल चुका है।
स्टालिन का दूसरा मु्द्दा ज्यादा गंभीर और विचारणीय है। इस साल देश में 16 वीं जनगणना होना संभावित है। साथ ही अगले साल 2026 में संसदीय व विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का देश की बढ़ती आबादी के परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से परिसीमन होना है। 5 ( केन्द्र शासित पुदुच्चेरी सहित 6 ) दक्षिणी राज्यों और खासकर तमिलनाडु की चिंता यह है कि चूंकि बीते डेढ़ दशक में इन राज्यों की आबादी उत्तर पश्चिमी भारत के राज्यों की तुलना में कम बढ़ी है, ऐसे में नए परिसीमन में लोकसभा में उनकी सीटें कम हो सकती है। इसका अर्थ है कि राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिण भारत की घटती हिस्सेदारी। दक्षिणी राज्यों का वाजिब तर्क है कि चूंकि उन्होंने अपने यहां जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित कर आर्थिक सामाजिक स्तर पर तेजी से विकास किया, इसकी ‘सजा’ उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में घटती हिस्सेदारी के रूप में क्यों मिले। स्टालिन का कहना है यदि परिसीमन का मुख्य कारक आबादी ही रहा तो तमिलनाडु की लोकसभा में 8 सीटें घट जाएंगी, जो वर्तमान में 39 है। सीटें घटने की यह चिंता तमिलनाडु के साथ साथ दक्षिण के अन्य राज्यों में भी है। इसीलिए आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने लोगों से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील की है और स्थानीय चुनावों में उम्मीदवारी के लिए दो बच्चों की सीमा को भी हटा दिया है। अब यह मोदी सरकार पर निर्भर है कि वह देश के संघीय ढांचे को कायम रखने के लिए क्या करती है।